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‘दारुल उलूम देवबंद’ जहाँ से उठती है इल्म और इंक़लाब की रौशनी

दुनिया में बहुत से मदरसे हैं, लेकिन कुछ जगहें वक़्त से आगे निकलकर तारीख़ का हिस्सा बन जाती हैं। ऐसी ही एक जगह सहारनपुर में दारुल उलूम,देवबंद

वो इल्मी और रूहानी मरकज़ जहाँ से न सिर्फ़ आलिम और मुफ़स्सिर निकले, बल्कि मुल्क की आज़ादी और उम्मत की रहनुमाई का अलम भी बुलंद हुआ।

सहारनपुर में देवबंद दारुल उलूम की अहमियत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान के वज़ीर-ए-ख़ारिजा अमीर ख़ान मुत्तक़ी खुद देवबंद पहुंचे ताकि आख़िरी सबक (दौर-ए-हदीस) पढ़ सकें, यानी वो मुक़ाम जहाँ से किसी आलिम की तकमील-ए-इल्म होती है।

ये कोई मामूली वाक़या नहीं है। जिस शख्स के ज़िम्मे एक मुल्क की बाहरी सियासत है, वो अब दारुल उलूम, देवबंद के उस्तादों से इल्म की रोशनी लेने आ रहा है, यानी इल्म की ताक़त को सियासत पर हावी मानना, यही असल देवबंदी फ़िक्र है।

1857 की जंग-ए-आज़ादी के बाद जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली की रूह को कुचल दिया तो देवबंद की इस ज़मीन पर कुछ सादगी पसंद उलेमा ने मशाल-ए-इल्म जलायी।

मौलाना क़ासिम नानौतवी, मौलाना रशीद अहमद गंगोही और फिर आगे चलकर शैख़ुल हिन्द मौलाना महमूद हसन, मौलाना उबेदुल्लाह सिंधी, मौलाना हुसैन अहमद मदनी
इन सब ने देवबंद को इनक़लाब का मरकज़ बना दिया।

आज से सौ साल पहले मौलाना उबेदुल्लाह सिंधी देवबंद से उठे और अफ़ग़ानिस्तान पहुँचे, जहाँ उन्होंने काबुल में हिंदुस्तान की पहली इंक़लाबी हुकूमत की नींव रखी, और आज वही अफ़ग़ानिस्तान। अमीर ख़ान मुत्तक़ी के ज़रिए फिर से देवबंद की चौखट पर हाज़िर है। यह इतिहास का एक खूबसूरत चक्र है।

अमीर ख़ान मुत्तक़ी का आख़िरी सबक़ इसी सिलसिले की नई कड़ी है। दारुल उलूम देवबंद आज भी उसी तरह ज़िंदा है। और जब किसी मुल्क का वज़ीर-ए-ख़ारिजा वहाँ झुक कर इल्म हासिल करने आता है, तो यह सबूत है कि देवबंद की इस खाक़ से अब भी नूर उठ रहा है जो सरहदों को रौशन कर रहा है।

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